नई दिल्ली, 11 सितंबर (khabarwala24)। ग्रहणी दोष को आयुर्वेद में एक गंभीर पाचन विकार माना गया है। यह मुख्य रूप से अग्नि (पाचन शक्ति) की कमजोरी और आंतों के कार्य में गड़बड़ी के कारण होता है। आधुनिक भाषा में इसे इर्रिटेबल बाउल सिंड्रोम (आईबीएस) कहा जाता है।
आयुर्वेद में ग्रहणी का काम खाए गए खाने को ठीक से पचाना और शरीर को ऊर्जा देना है। जब यह अंग ठीक से कार्य नहीं करता, तो भोजन अपचित रह जाता है और व्यक्ति को बार-बार दस्त, अपच, और कमजोरी जैसी समस्याएं होने लगती हैं। यह स्थिति लंबे समय तक बनी रहे तो शरीर में पोषण की भारी कमी हो सकती है।
ग्रहणी दोष का मुख्य कारण पाचन अग्नि (शक्ति) का कम होना होता है, जिसे आयुर्वेद में अग्निमांद्य कहा गया है। जब व्यक्ति अनियमित भोजन करता है, बहुत अधिक तला-भुना या बासी खाना खाता है, अत्यधिक चिंता या तनाव में रहता है तो अग्नि कमजोर हो जाती है। इससे भोजन का पाचन अच्छे से नहीं हो पाता और अधपचा भोजन आंतों में सड़ने लगता है, जिससे गैस, बदबूदार दस्त, और बार-बार मल त्याग की इच्छा जैसी परेशानियां शुरू होती हैं।
ग्रहणी दोष के लक्षणों में बार-बार दस्त लगना, मल में अधपचा भोजन आना, पेट में भारीपन, भूख कम लगना, गैस बनना, कमजोरी और थकान प्रमुख हैं। कुछ रोगियों में खाना खाते ही शौच जाने की तीव्र इच्छा होती है। यह रोग वात, पित्त और कफ, तीनों दोषों के असंतुलन से उत्पन्न हो सकता है, इसलिए आयुर्वेद में इसके चार भिन्न प्रकार बताए गए हैं, वातज, पित्तज, कफज और सन्निपातज ग्रहणी।
आयुर्वेद में ग्रहणी दोष के उपचार के लिए विशेष आहार, औषधियां और जीवनशैली अपनाने की सलाह दी जाती है। हल्का भोजन जैसे मूंग की खिचड़ी, बेल का शरबत, छाछ और जीरा पानी बहुत लाभकारी माना जाता है। वहीं, रोगी को गरिष्ठ, मसालेदार, तला-भुना और बासी भोजन से बचना चाहिए।
योग और प्राणायाम भी ग्रहणी दोष को कम करने में लाभकारी माना जाता है। पवनमुक्तासन, वज्रासन, अग्निसार क्रिया और अनुलोम-विलोम प्राणायाम से पाचन तंत्र को बल मिलता है और मानसिक शांति भी मिलती है, जिससे पाचन विकार कम होते हैं।
इसके अलावा सौंफ और अजवाइन की चाय, अदरक का रस और शहद, छाछ में पुदीना, इसबगोल और गुनगुना दूध और हींग का पानी पीना भी काफी फायदेमंद होता है।
प्रतीक्षा/एबीएम
Source : IANS
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