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40 साल पहले रिलीज हुई फिल्म ‘आखिर क्यों’ ने कैसे फेमिनिज्म को नए कलेवर में किया पेश?

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नई दिल्ली, 6 अक्टूबर (khabarwala24)। जबरदस्त अभिनेत्री, दमदार संवाद और सशक्त किरदार जो स्मृति में छप जाएं तो फिल्म बिसराई नहीं जाती। और ऐसी ही एक ठीक चालीस साल पहले, 7 अक्टूबर 1985 को रिलीज हुई और छा गई, नाम था ‘आखिर क्यों?’ ये एक ड्रामा फिल्म नहीं थी बल्कि उस समय की बॉलीवुड फिल्मों में महिला सशक्तिकरण और भावनाओं की नई भाषा पेश करने वाली फिल्म थी। स्मिता पाटिल ने इस फिल्म में जो भूमिका निभाई, वह आर्ट और मुख्यधारा के बीच की लकीर को मिटाती ही नहीं बल्कि एक-दूसरे को समृद्ध भी कर सकती हैं।

स्मिता पाटिल का नाम सुनते ही गंभीर, सशक्त और रियल सिनेमा की तस्वीर उभरती है। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत समानांतर फिल्मों से की और लगभग पांच साल तक इनमें रमी रहीं। हालांकि मुख्यधारा की फिल्मों की ओर उनका रुख आसान नहीं था, लेकिन ‘आखिर क्यों’ ने साबित किया कि उनका अभिनय किसी भी पॉपुलर फिल्म में भी गहराई और सहजता से समा सकता है। इस फिल्म में उन्होंने राजेश खन्ना, राकेश रोशन और टीना मुनीम के साथ काम किया और अपने किरदार में इतनी सहजता दिखाई कि किसी और पर ध्यान ही नहीं गया।

फिल्म की कहानी निशा शर्मा (स्मिता पाटिल) के इर्द-गिर्द घूमती है। निशा शादीशुदा है और परिस्थितियों में फंस कर खुद की तलाश में निकल पड़ती है। शांत और विनम्र निशा अक्सर आंसू बहाती है, पति कबीर (राकेश रोशन) से अपने व्यवहार में बदलाव की भीख मांगती है, लेकिन यही उसका वास्तविक बल बनता है।

‘आखिर क्यों’ का फर्स्ट हाफ निशा के रोने-धोने में गुजर जाता है। दूसरे हिस्से में उसकी मुलाकात खुद से होती है। इस दौरान भी वो हमेशा पुरुषों के बीच रहती है, जो उसके लिए निर्णय लेना चाहते हैं। लेकिन निशा चिल्लाकर या शोर मचाकर नहीं, बल्कि स्पष्ट और दृढ़ होकर अपने निर्णय खुद लेने की ताकत दिखाती है और यहीं उसका फेमिनिज्म दिखता है। कुछ अलग सा लेकिन भाषण सरीखा नहीं।

फिल्म को देखते हुए लगता है कि ये तो उस दौर की हर दूसरी फिल्म सरीखा है, जहां पत्नी गिड़गिड़ाती है और जब पति नहीं मानता तो उसके खिलाफ खड़े होने में समय नहीं बर्बाद करती बल्कि उठ खड़ी होती है। लेकिन यही इस ‘आखिर क्यों’ को अलग खाके में फिट कराता है। निशा अंतिम समय तक कोशिश करती है, पति से बदलने की गुहार लगाती है, लेकिन जब वो नहीं बदलता तो मजबूरी में अपने अस्तित्व की तलाश में निकल पड़ती है। संघर्ष करती है, रोती है, और यही बहते आंसू उसकी कमजोरी नहीं, ताकत का प्रमाण होते हैं। इस कैरेक्टर के विकास और आत्म परिवर्तन का अहम हिस्सा हैं।

एक पल ऐसा भी आता है जब कबीर हैरान होकर कहता है कि उसने कभी निशा को कोई शब्द कहते नहीं सुना। निशा जवाब देती है कि वह बतौर पत्नी अपनी जिम्मेदारी निभाने में व्यस्त थी। दरअसल, यह एक झटका है, क्योंकि असल में वह कह रही होती है कि उसने उसे कभी परखा ही नहीं। शर्मीला और शांत होना कमजोर होने का पर्याय नहीं है। वह जताना चाहती है कि कबीर, अपने संकीर्ण विचारों के कारण, समझ ही नहीं पाया कि महिलाएं केवल उसकी परिभाषा में नहीं बंधतीं।

निशा नाम का किरदार शोर नहीं मचाता, दबंगई से अपनी बात साबित करने पर नहीं तुलता, बल्कि सादगी और सहजता से अपनी बात बिना लाग लपेट के रखने में यकीन रखता है। यह वह फेमिनिज्म है जो जोर-जबरदस्ती या आंदोलनकारी नायिका वाला नहीं है, लेकिन अपने सशक्त और संवेदनशील स्वरूप में उतना ही प्रभावशाली और असरदार है।

Source : IANS

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