कृपालुजी महाराज: ढाई साल में पूरी की 18 साल की शिक्षा, ‘जगद्गुरुत्तम’ की आध्यात्मिक यात्रा ने मानवता को दिखाई राह

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नई दिल्ली, 5 अक्टूबर (khabarwala24)। हर युग में जब मानवता दिशा भटकने लगती है और जीवन की आपाधापी में लोग आत्मिक शांति और संतुलन खोने लगते हैं, तब मानवता को जीवन की मूलभूत समस्याओं से पार पाने की राह दिखाने के लिए कुछ दिव्य संत अवतरित होते हैं। ऐसे ही एक दिव्य व्यक्तित्व थे जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज।

जगद्गुरु श्री कृपालुजी महाराज, जिन्हें उनके अनुयायी ‘कृपा अवतार’, ‘रसिक संत’ और ‘जगद्गुरुत्तम’ के रूप में स्मरण करते हैं। उनकी शिक्षाएं आज भी लाखों लोगों के जीवन को प्रेरणा और दिशा दे रही हैं। कृपालु जी महाराज की शिक्षाएं सिर्फ धार्मिक या आध्यात्मिक विषयों पर केंद्रित नहीं हैं, बल्कि ये आधुनिक जीवन की उलझनों को सरल और सटीक तरीके से छूते हुए ऐसे उपाय देती हैं, जो हर इंसान के जीवन को शांति, प्रेम और संतुलन से भर सकते हैं।

1922 में शरद पूर्णिमा की पावन रात्रि को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के मनगढ़ गांव में एक साधारण परिवार में श्री कृपालुजी महाराज का जन्म हुआ। उनका जन्म नाम राम कृपालु त्रिपाठी था, लेकिन उनकी असाधारण प्रतिभा और आध्यात्मिक गहराई ने उन्हें कम उम्र में ही विशेष बना दिया।

बचपन से ही उनकी रुचि अध्ययन और आध्यात्मिक चिंतन में थी। 15 साल की अल्पायु में उन्होंने संस्कृत साहित्य और इतिहास में ‘व्याकरणाचार्य’ की उपाधि हासिल की। इसके बाद 1942 में काव्यतीर्थ, 1943 में दिल्ली विद्यापीठ से आयुर्वेदाचार्य और उसी साल कलकत्ता विद्यापीठ से साहित्याचार्य की उपाधियां हासिल कीं।

उन्होंने मात्र ढाई वर्ष में 18 वर्ष की शिक्षा पूरी कर ली। इस दौरान वे न सिर्फ शास्त्रों में पारंगत हुए, बल्कि अखंड संकीर्तन और भक्ति भजनों में भी गहरी रुचि रखते थे। उनकी यह असाधारण बुद्धिमत्ता और भक्ति का समन्वय उनके भविष्य के महान कार्यों का आधार बना।

16 साल की आयु में श्री कृपालुजी महाराज की आध्यात्मिक यात्रा एक नए मोड़ पर पहुंची। वे राधा-कृष्ण के प्रति अगाध प्रेम में इतने लीन हो गए कि बिना किसी को बताए चित्रकूट के घने जंगलों की ओर निकल पड़े। चित्रकूट, जो भगवान राम और सती अनुसुइया से जुड़ा पवित्र स्थल है, वहां उन्होंने परमहंस की अवस्था में कुछ दिन बिताए। इस यात्रा के दौरान वे चरवारी, महोवा, झांसी, आगरा और मथुरा होते हुए आखिर में वृंदावन पहुंचे।

वे मध्यरात्रि में सेवा कुंज, निधिवन या यमुना के तट पर चले जाते और राधा-कृष्ण के भक्ति रस में डूब जाते। उनकी यह प्रेममयी भक्ति चैतन्य महाप्रभु की ‘महाभाव’ अवस्था की याद दिलाती थी, जो भक्ति का सर्वोच्च रूप माना जाता है।

1957 में देश की सबसे विद्वान पंडितों की सर्वोच्च सभा काशी विद्वत परिषद ने श्री कृपालुजी महाराज को शास्त्रार्थ के लिए आमंत्रित किया। इस सभा में लगभग 500 विद्वान उपस्थित थे, जिनमें से प्रत्येक ने शास्त्रों के किसी न किसी क्षेत्र में महारत हासिल की थी। श्री महाराजजी ने 10 दिनों तक वैदिक संस्कृत में प्रवचन दिए, जिसमें उन्होंने दार्शनिक मतभेदों का समाधान किया और शास्त्रों की गूढ़ व्याख्या प्रस्तुत की।

दूसरे दिन से श्री महाराज जी ने बोलना शुरू किया। जिसने भी उनका भाषण सुना, मंत्रमुग्ध हो गया। आबालवृद्ध, अनपढ़ और विद्वान, पुरुष और महिलाएं समान रूप से उनकी ओर आकर्षित हो रहे थे। परम विद्वान महात्मागण और उपदेशक भी उनका भाषण बड़े ध्यानपूर्वक सुन रहे थे। जगद्गुरु कृपालु परिषद की वेबसाइट पर जिक्र मिलता है कि उन्होंने प्रतिदिन 2-2, 3-3 घंटे समस्त वेद, शास्त्र, भागवत, गीता, रामायण, आदि अनेक ग्रन्थों का उदाहरण देते हुए अपने मत का प्रतिष्ठापन कर रहे थे।

उनके प्रवचनों का स्तर इतना उच्च था कि सभा में मौजूद कुछ ही विद्वान उनकी वैदिक संस्कृत को पूरी तरह समझ पाए। उनकी गहन विद्वता और वैदिक दर्शन पर अभूतपूर्व पकड़ को देखकर परिषद ने सर्वसम्मति से उन्हें ‘जगद्गुरु’ की उपाधि प्रदान की।

इतना ही नहीं, उन्हें ‘जगद्गुरुत्तम’ यानी इतिहास के सभी जगद्गुरुओं में सर्वोच्च, का सम्मान दिया गया। मात्र 34 साल की उम्र में यह उपाधि प्राप्त करना उनके असाधारण ज्ञान और आध्यात्मिक गहराई का प्रमाण था।

श्री कृपालुजी महाराज की शिक्षाएं सिर्फ धार्मिक या आध्यात्मिक नहीं थीं, बल्कि वे आधुनिक जीवन की जटिलताओं को सरल और व्यावहारिक तरीके से संबोधित करती थीं। उनकी शिक्षाओं का मूल मंत्र था- प्रेम, भक्ति और मानवता। वे कहते थे कि सच्ची भक्ति वह है, जो मनुष्य को न सिर्फ ईश्वर से जोड़े, बल्कि उसे अपने दैनिक जीवन में शांति, संतुलन और संतोष भी प्रदान करे।

श्री कृपालुजी महाराज की सबसे महत्वपूर्ण देन में से एक वृंदावन में निर्मित भव्य प्रेम मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण 2001 में शुरू हुआ और 11 साल के अथक परिश्रम के बाद 2012 में इसका उद्घाटन हुआ। मंदिर के निर्माण में 100 करोड़ रुपए की लागत आई और इसे इटालियन करारा संगमरमर से बनाया गया। उत्तर प्रदेश और राजस्थान के एक हजार से अधिक शिल्पकारों ने इसकी भव्यता को आकार दिया।

प्रेम मंदिर के मुख्य देवता श्री राधा-गोविंद (राधा-कृष्ण) और श्री सीता-राम हैं। यह मंदिर एक धार्मिक स्थल के साथ-साथ प्रेम और भक्ति का प्रतीक है, जो श्री महाराजजी के दर्शन को मूर्त रूप देता है।

नवंबर 2013 में श्री कृपालुजी महाराज ने अपनी प्रकट लीलाओं को इस भूलोक पर विराम दे दिया। लौकिक दृष्टिकोण से उनका महाप्रयाण 15 नवंबर 2013 को हुआ, किंतु उनके अनुयायी मानते हैं कि उनकी आत्मा आज भी उनके प्रवचनों और शिक्षाओं के माध्यम से जीवित है। उनके लाखों अनुयायी आज भी उनकी शिक्षाओं को अपने जीवन में उतार रहे हैं।

Source : IANS

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