नई दिल्ली, 14 नवंबर (khabarwala24)। जयशंकर प्रसाद हिंदी साहित्य के एक महान कवि, नाटककार और कहानीकार थे, जिन्हें भारतीय साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ के रूप में जाना जाता है। उनकी कृतियां जैसे ‘कामायनी’, ‘आंसू’ और ‘झरना’ हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर मानी जाती हैं।
30 जनवरी 1890 को जयशंकर प्रसाद का जन्म वाराणसी के एक संपन्न व्यापारिक घराने में हुआ। परिवार का काशी में अपना एक सम्मान था। दादा दान देने के लिए प्रसिद्ध थे और इनके पिता भी दान देने के साथ-साथ कलाकारों का आदर करने के लिए जाने जाते थे। काशी की जनता काशी नरेश के बाद ‘हर हर महादेव’ से परिवार के लोगों का स्वागत किया करती थी।
जयशंकर प्रसाद पर दुख का पहाड़ उस समय टूटा, जब पिता और बड़े भाई की असामयिक मृत्यु हो गई। उस समय उन्हें 8वीं कक्षा में ही स्कूल छोड़कर व्यवसाय में उतरना पड़ा। शिक्षा का प्रबंध घर पर ही किया गया, जहां उन्होंने हिंदी और संस्कृत का अध्ययन किया।
उन्होंने घर पर रहकर ही फारसी भाषा और साहित्य का भी अध्ययन किया। इसके साथ ही वैदिक वांग्मय और भारतीय दर्शन का भी ज्ञान अर्जित किया। वह बचपन से ही प्रतिभा संपन्न थे। 8-9 साल की उम्र में अमरकोश और लघु कौमुदी कंठस्थ कर लिया था, जबकि ‘कलाधर’ उपनाम से कवित्त और सवैये भी लिखने लगे थे।
समय के साथ जिंदगी में कई बदलाव आए, लेकिन एक वक्त ऐसा था जब जयशंकर प्रसाद ने संन्यासी बनने की ठान ली थी और यह बात शायद कम ही लोग जानते होंगे। जयशंकर प्रसाद के मन में यह ख्याल गहरे दुख और पीड़ा के कारण था, क्योंकि वे एक नहीं, बल्कि दो पत्नियों को खो चुके थे।
उनका पहला विवाह 1909 में विंध्यवासिनी देवी से हुआ था, लेकिन टीबी से पीड़ित होने के कारण उनकी 1916 में मृत्यु हो गई। जयशंकर प्रसाद की उम्र ज्यादा नहीं थी और परिवार भी भली-भांति जानता था कि जिंदगी इस दुख के साथ नहीं काटी जा सकती। इसलिए परिवार ने जिद कर जयशंकर प्रसाद की दूसरी शादी कराई।
उनका दूसरा विवाह विंध्यवासिनी देवी की छोटी बहन सरस्वती देवी से हुआ। शायद समय को यह जोड़ी भी मंजूर नहीं थी। उनकी दूसरी पत्नी भी टीबी से पीड़ित हो गईं और लगभग दो साल के बाद निधन हो गया।
इसके बाद जयशंकर प्रसाद ने घर को छोड़ दिया, क्योंकि फिर से घर बसाने की लालसा नहीं रह गई थी। जब वे घर छोड़कर गए तो परिवार के लोग बैचेन थे। खासकर उनकी भाभी लखरानी देवी को उनकी चिंता हुआ करती थी, जो उनकी साहित्य साधना में भी मदद किया करती थीं।
जब परिवार के सदस्यों ने जयशंकर की खोज शुरू की तो वे विंध्यवासिनी देवी के मंदिर में मिले। जैसे-तैसे उन्हें फिर से घर लाया गया। कहा जाता है कि वह उनकी भाभी लखरानी देवी ही थीं, जिन्होंने जयशंकर प्रसाद को मनाया और फिर से साहित्य साधना के लिए प्रेरित किया।
भाभी की बात मानकर जयशंकर प्रसाद ने अपने जीवन की नई शुरुआत की। 1919 में उन्होंने तीसरी बार शादी की और कमला देवी को जीवन संगिनी बनाया।
जीवन में नए बदलाव के बाद जयशंकर प्रसाद ने साहित्य की ओर फिर से अपना रुख किया और अनेकों कहानी, काव्य और नाटक लिखे।
‘उर्वशी’, ‘झरना’, ‘चित्राधार’, ‘आंसू’, ‘लहर’, ‘कानन-कुसुम’, ‘करुणालय’, ‘प्रेम पथिक’, ‘महाराणा का महत्व’, ‘कामायनी’, ‘वन मिलन’ उनकी प्रमुख काव्य रचनाएं हैं। ‘कामायनी’ उनकी विशिष्ट रचना है, जिसे मुक्तिबोध ने विराट फैंटेसी के रूप में देखा और नामवर सिंह ने इसे आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य कहा।
कविताओं के अलावा उन्होंने गद्य में भी योगदान किया है। ‘कामना’, विशाख, एक घूंट, अजातशत्रु, जन्मेजय का नाग-यज्ञ, राज्यश्री, स्कंदगुप्त, सज्जन, चंद्रगुप्त, ध्रुवस्वामिनी, कल्याणी और प्रायश्चित उनके नाटक हैं, जबकि कहानियों का संकलन छाया, आंधी, प्रतिध्वनि, इंद्रजाल और आकाशदीप में हुआ है। कंकाल, तितली और इरावती उनके उपन्यास हैं।
हालांकि अपने जीवन के अंतिम दिनों में वे बीमार पड़ गए। दो पत्नियों की तरह उन्हें भी टीबी की बीमारी ने जकड़ लिया था और 15 नवंबर 1937 की सुबह चार बजे उनका देहावसान हो गया।
Source : IANS
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