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देशबंधु चित्तरंजन दास : वकालत छोड़ स्वराज की मशाल जलाने वाले जादूगर

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नई दिल्ली, 5 नवंबर (khabarwala24)। ढाका के बिक्रमपुर के तेलिरबाग गांव में 5 नवंबर 1870 की सुबह, जब गंगा की लहरें अभी भी कोहरे में डूबी थीं, एक बालक ने जन्म लिया। नाम रखा गया- चित्तरंजन दास। लंदन से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे देशबंधु ने जितनी मजबूती से अपने मुवक्किलों के केस लड़े, उतनी ही दृढ़ता से स्वराज की मांग को भी उठाया। गांधीजी के असहयोग आंदोलन से मोतीलाल नेहरू के साथ मिलकर स्वराज पार्टी बनाने में उनकी भूमिका अहम रही।

चित्तरंजन दास के पिता, भुवन मोहन दास, कलकत्ता हाईकोर्ट के प्रसिद्ध वकील थे, जबकि मां, नंदिनी देवी, ब्रह्म समाज की आध्यात्मिक अनुयायी थीं। घर में वेद-उपनिषद की चर्चा और रवींद्र संगीत की धुनें गूंजती थीं। छोटे चित्तरंजन की आंखों में कविता की चमक और दिल में न्याय की आग थी। 1893 में लंदन से बैरिस्टर बनकर लौटे। कलकत्ता हाईकोर्ट में पहला केस जीता तो फीस के रूप में मिले 500 रुपए उन्होंने गरीब मुवक्किल को लौटा दिए और कहा, ‘मेरा मुकदमा न्याय का था, धन का नहीं।’

1908 के अलीपुर बम कांड को लेकर अरविंद घोष पर राजद्रोह का मुकदमा चला। चित्तरंजन ने 11 दिन तक अदालत में तर्क दिए, और अंतिम वक्तव्य इतना प्रभावशाली था कि जज ने घोष को बरी कर दिया। जब वे बाहर निकले तो लोगों ने ‘देशबंधु! देशबंधु!’ के नारे लगाए, यही उपनाम जीवन भर चला।

1920 में गांधीजी ने जब असहयोग आंदोलन छेड़ा, तो चित्तरंजन कलकत्ता के सबसे अमीर वकील थे। उनके पास कोठी, कार, अंग्रेजी सूट – सब कुछ था। लेकिन एक सुबह उन्होंने पत्नी बसंती देवी से कहा, ‘आज से वकालत बंद।’ बसंती ने मुस्कुराकर खादी के वस्त्र निकाली। चित्तरंजन ने कोर्ट का कोट उतारा, खादी का कुर्ता पहना। उन्होंने अपनी कोठी बेच दी और पैसा असहयोग कोष में डाला। जेल गए तो जेलर ने सवाल किया कि आप इतने अमीर, फिर भी? जिसपर चितरंजन ने हंस कर जवाब दिया कि मेरा असली मुकदमा अब भारत का है।

1922 में चौरी-चौरा के बाद गांधीजी ने आंदोलन रोका, जिसपर दास असहमत थे। उन्होंने मोतीलाल नेहरू के साथ स्वराज्य पार्टी बनाई और नारा दिया – ‘परिषद में घुसो, अंदर से तोड़ो।’ 1923 के बंगाल विधानसभा चुनाव में स्वराज्य पार्टी ने बहुमत जीता। दास विपक्ष के नेता बने। जब हिंदुओं पर कर लगाने के लिए गैर-कुर्बानी विधेयक लाया गया, तो दास ने विधानसभा में कहा कि यह कर नहीं, हिंदू धर्म पर हमला है। विधेयक गिर गया। एक अंग्रेजी गर्वनर ने दास को कहा कि यह बंगाली जादूगर है।

1920 में अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस की स्थापना की। जूट मिल मजदूरों की हड़ताल में शामिल हुए और कहा कि ‘मजदूर का पसीना ही राष्ट्र का खून है।’

1925 में उनका स्वास्थ्य बिगड़ा, जिसके बाद उन्हें दार्जिलिंग ले जाया गया। जहां मात्र 54 साल के उम्र में उन्होंने अंतिम सांस ली। उस दौरान कलकत्ता में अंतिम यात्रा में लाखों लोग सड़कों पर थे। उस समय गांधी जी ने उनके जाने को अपनी व्यक्तिगत क्षति बताया।

Source : IANS

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